Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


80. दुःखद अन्त : वैशाली की नगरवधू

बन्दी राजदम्पती को लेकर सेनापति कारायण चलते ही गए । चलते - ही - चलते रात्रि का अन्त हो गया । प्राचीन में उज्ज्वल आलोक की एक किरण फूटी। इसी समय कोसल की सीमा आ गई । सीमान्त पर कारायण रुक गया । उसने अपने सैनिकों को एक ओर हटकर खड़े होने का आदेश किया । फिर राजदम्पती के निकट जाकर कहा - “ अब आप मुक्त हैं महाराज प्रसेनजित्! मैं राजाज्ञा का पालन कर चुका । अब आप स्वेच्छा से जहां जाना चाहें , जा सकते हैं । यह आपका पाथेय है। ”उसने स्वर्ण से भरी एक छोटी - सी थैली राजा के हाथ में थमा दी और बिना एक क्षण ठहरे और उत्तर की प्रतीक्षा किए ही वह तुरन्त लौट चला ।

उस टूटती रात में , एकान्त - शान्त निर्जन वन में दोनों वृद्ध राजदम्पती सर्वथा निरीह- एकाकी खड़े रह गए । वह स्वर्णदम्म से भरी सेनापति के द्वारा दी गई छोटी - सी थैली न जाने कब उनके हाथ से खिसककर भूमि पर जा गिरी ।

बहुत देर बाद राजा ने महिषी से कहा - “ अब , मल्लिका ? ”

“ महाराज , जिसका काल जानें । ”

“ तो मगध चलो , प्रिये ! ”

“ पराजित श्रेणिक बिम्बसार से पराभव पाने में क्या लाभ है, महाराज ? ”

“ श्रेणिक बिम्बसार मगधपति है। वह पूर्वी भारत का शीर्षस्थानीय नरपति है। वह कर्तव्याकर्तव्य को समझता है । उसका ईर्ष्या- द्वेष जो कुछ भी हो , कोसल के अधिपति के प्रति हो सकता है , प्रसेन के प्रति नहीं । प्रसेन अब एक निरीह पुरुष है । वह साधारण नागरिक भी नहीं है। वह राज्य - भ्रष्ट, श्री - भ्रष्ट, अधिकार - भ्रष्ट ,मित्र- बन्धु -सेवक और सम्पत्ति से रहित आगत शरणागत जन है । श्रेणिक बिम्बसार उसका स्वागत करेगा , उसे आश्रय देगा । फिर मैंने उसे कन्या दी थी , वह मेरा सम्बन्धी जामाता है, वह उसकी मर्यादा का भी पालन करेगा। ”

“ तो देव , जैसी आपकी इच्छा, मगध ही चलिए। परन्तु आपने तो पाथेय भी ग्रहण नहीं किया और सब आभरण हमने भृत्यों को दे दिए । मार्ग में पाथेय का क्या होगा ? ”

“ क्या मैं सेवक का दान ग्रहण करूंगा ? ”

“ तो महाराज ,, मार्ग में हम खाएंगे क्या ? ”

“ क्यों ? क्या भिक्षा नहीं मिलेगी ? ”

“ हन्त ! देव क्या भिक्षा ग्रहण करेंगे ? ”

महाराज ने एकाएक कुछ स्मरण करके हंसते हुए कहा

“ ओह देवी , पाथेय की व्यवस्था हो गई ? ”

“ किस प्रकार महाराज ? ”

“ मेरे दांतों में हीरक - कील है, उखाड़ लेने पर यथेष्ट होगा । ”

“ शान्तं पापं ! महाराज क्या दांत तोड़कर उससे हीरक -कील निकालेंगे ? ”

“ ये दांत अब किस काम आएंगे देवी मल्लिका ? सब त्यागा तो दांतों का मोह क्यों ? फिर ये सब विगलित होकर चल -विचलित हो गए हैं । तोड़ने में अधिक कष्ट नहीं होगा। ”

मल्लिका कुछ न कहकर रोने लगीं । राजा ने घोड़े से उतरते हुए कहा - “ रोने से क्या लाभ , मल्लिके ? अश्व से उतर आओ। कोसल राज्य का यह चिह्न भी हमारे काम का नहीं। प्रिये , तुम माली की बेटी हो , क्या पुष्पमाल नहीं गूंथ सकतीं ? ”

“ अति बाल - काल में गूंथी थी महाराज, गूंथ सकूँगी । ”

“ तो प्रिये, मैं उसे गृहस्थों के हाथ बेच आऊंगा। हमारा पाथेय चल जाएगा । चलो , प्रिये ! ”

राजा ने रानी का हाथ पकड़ा और वे दोनों पांव -प्यादे, कठोर , ऊबड़ - खाबड़ जन शून्य मार्ग पर अपने अनभ्यस्त चरणों से बढ़ चले । ।

दिन निकला , अस्त हुआ ; रात हुई, प्रभात हुआ । ये दोनों निरीह वृद्ध नियति - संतप्त राजदम्पती चलते ही चले गए । मार्ग में लोगों ने देखा , दया करके भोजन देना चाहा, पर उन्होंने उस ओर नहीं देखा । बहुतों ने नाम - धाम पूछा, उन्होंने उत्तर नहीं दिया । बहुतों ने मान किया , अपमान किया , उपहास किया, उन्होंने उनकी ओर नहीं देखा। चलते चले गए । उनके पैर लहू और घावों से भर गए, पिंडलियां तन गईं, वस्त्र गन्दे हो गए , वे झाड़ियों में उलझकर फट गए, मुंह सूख गया । भूख और प्यास से होठ जड़ हो गए। पर वे चलते ही चले गए। चलते ही चले गए ।

अन्त में वे राजगृह के द्वार पर जा पहुंचे। उस समय दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो चुकी थी , द्वार बन्द थे। उन्होंने थकित वाणी से द्वारी से कहा - “ मित्र , द्वार खोल । ”

दो वृद्ध निरीह भिक्षुक पुरुष - स्त्री को अवज्ञा की दृष्टि से देखकर द्वारी ने कहा - “ क्या तुम्हारे आदेश से ? ”

“ आदेश नहीं मित्र, परन्तु हम दूर से आ रहे हैं । ”

“ तो उधर चैत्य में स्थान है, रात - भर रहो। प्रातः द्वार खुलने पर नगर में जाना । ”

राजा ने निराश दृष्टि से रानी की ओर देखा । उनमें खड़े होने और बोलने की शक्ति नहीं रही थी । रानी ने मन्द स्वर से कहा

“ ऐसा ही हो महाराज ! ”

राजा ने मुद्रिका उंगली से निकालकर दौवारिक को देते हुए कहा - “ तो मित्र , यह मुद्रिका अपने स्वामी मगध के सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार के लिए है , यह श्रेणिक बिम्बसार को दे। ”

दौवारिक राजमुद्रा देख आश्चर्यचकित हो गया । उसने थोड़ा आदर -प्रदर्शन कर कहा - “ कुछ सन्देश भी है भन्ते ! ”

“ नहीं। ”कहकर राजदम्पती चैत्य में आकर एक शिलाखण्ड पर पड़ रहे ।

शिला पर गिरते ही देवी मल्लिका के प्राण निकल गए । उन्हें गतप्राण देख महाराज प्रसेनजित् कुछ होठों में ही बड़बड़ाए और वे भी धीरे- धीरे देवी मल्लिका के शरीर पर गिर गए । उसी रात उनकी भी मृत्यु हो गई ।

मुद्रिका पाकर श्रेणिक बिम्बसार अमात्य - वर्ग सहित कोसलपति की अभ्यर्थना को

जब वहां आया , तो दोनों राजदम्पती चिथड़े अंग पर लपेटे चिर निद्रा में सो रहे थे। सम्राट ने राज -विधान के साथ उनका संस्कार किया और सारे साम्राज्य में सूतक मनाया

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